संवैधानिक पदाधिकारी रंजिश को मर्यादा के ऊपर हावी होने का मौका नहीं दे सकते। पंजाब के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को सुप्रीम कोर्ट की सलाह का सार और आशय यही है कि उन्हें अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए परिपक्व राजनीतिक कौशल का मुजाहिरा करना चाहिए। राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित वाकई लीक से बाहर चले गए थे जब उन्होंने यह संकेत दिया कि वह पंजाब विधानसभा का बजट सत्र बुलाने की मंत्रिमंडल की सलाह पर तभी अमल करेंगे जब वह मुख्यमंत्री भगवंत मान द्वारा उनके कुछ पुराने सवालों के जवाब पर कानूनी सलाह ले लेंगे। उनके इस रूख ने आम आदमी पार्टी (आप) सरकार को विधानसभा सत्र बुलाने से स्पष्ट इनकार के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर किया। हालांकि, मामला न्यायिक हस्तक्षेप के बिना सुलझा लिया गया क्योंकि अदालत को यह सूचित किया गया कि राज्यपाल ने सदन की बैठक 3 मार्च की पूर्व-निर्धारित तिथि को बुलाई है। संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत सदन का सत्र बुलाने की राज्यपाल की शक्ति के बारे में स्थिति अब जगजाहिर है। भले ही इस अनुच्छेद में यह कहा गया है कि राज्यपाल समय-समय पर सदन की बैठक “ऐसे समय और स्थान पर बुलाएगा जैसा वह उचित समझे”, लेकिन नबाम रेबिया (2016) मामले में एक संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया था कि राज्यपाल सिर्फ मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से ही सदन की बैठक बुला सकता है, उसका सत्रावसान कर सकता है और उसे भंग कर सकता है। श्री पुरोहित शायद ही इस तथ्य से अनजान हों, लेकिन उन्होंने ऐसा रुख राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच की तनातनी के मद्देनजर अपनाया होगा।
अदालत ने श्री मान के संदिग्ध रवैये पर भी टिप्प्णियां कीं हैं। कुछ स्कूलों के प्रधानाध्यापकों को प्रशिक्षण के लिए सिंगापुर भेजे जाने पर राज्यपाल द्वारा उठाए गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि वह सिर्फ पंजाब के लोगों के प्रति जवाबदेह हैं, न कि केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल के प्रति। वह निहायत ही गलत थे, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 167 में निर्धारित किया गया है कि यह मुख्यमंत्री का कर्तव्य है कि वह “राज्यपाल द्वारा मांगे जाने पर राज्य के प्रशासन से संबंधित मामलों की जानकारी और कानून के प्रस्तावों को उनके सामने प्रस्तुत करे...”। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभिन्न राज्यों में राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच एक-दूसरे पर हावी होने के ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं। दोनों को संवैधानिक मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा जान पड़ता है कि कुछ राज्यपालों का यह मानना है कि वे अपने विवेकाधिकार को उन क्षेत्रों तक बढ़ा सकते हैं जिनका संविधान में विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। इसकी ज्यादा सार्थक वजह यह है कि राजभवन में बैठने वाले ओहदेदार केंद्र सरकार की आंख और कान के रूप में अपनी भूमिका को जरूरत से ज्यादा ही शाब्दिक अर्थों में लेते हैं और अक्सर राजनीतिक मैदान में आ बैठते हैं। निश्चित रूप वे मार्गदर्शन दे सकते हैं, सतर्क कर सकते हैं या सलाह दे सकते हैं, लेकिन वे कभी-कभी टिप्पणीकार, आलोचक और यहां तक कि विपक्ष की भूमिका निभाने लग जाते हैं। यह संवैधानिक शासन के लिए शुभ संकेत नहीं है।