नाजुक दौर में सधे कदम: भारत-जापान के रिश्ते और भू-राजनीतिक मसलों से उत्पन्न चुनौतियां 

भू-राजनीतिक मसलों पर भारत अपना संतुलन खोना गवारा नहीं कर सकता 

March 22, 2023 12:29 pm | Updated 12:29 pm IST

भारत और जापान के प्रधानमंत्रियों ने 2006 के बाद से अपने “वार्षिक शिखर सम्मेलन” के लिए एक-दूसरे के यहां यात्राएं की हैं। इन बैठकों ने द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने का काम किया है। इस सप्ताह हालांकि दिल्ली की एक त्वरित ‘आधिकारिक यात्रा’ के दौरान जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के मिशन के केंद्र में भारत-जापान विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी नहीं थी। उनका ध्यान दो क्षेत्रों पर था: मुख्य रूप से यूक्रेन संघर्ष से उत्पन्न खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा के मुद्दों पर जी-7 और जी-20 के एजेंडा का समन्वय करना, और साथ ही मुक्त और खुले हिंद-प्रशांत (एफओआइपी) के लिए जापान की 75 बिलियन डॉलर की योजना का अनावरण तथा ऋण के जाल से बचने, बुनियादी ढांचे के निर्माण और समुद्री एवं वायु सुरक्षा को बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र के देशों के साथ मिलकर काम। किशिदा रूस और चीन की चुनौतियों से निपटने के लिए वैश्विक, खासकर भार‍त के साथ, सहमति की जरूरत पर जोर देते दिखाई दिए। इस मुद्दे पर जापान पश्चिमी शक्तियों के साथ है। समझा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत में किशिदा ने जी-20 अध्यक्ष के तौर पर भारत को सीधे तौर पर कहा है कि यूक्रेन मुद्दे के समाधान के लिए उसे जी-7 की योजनाओं के साथ आना होगा और ‘रूसी आक्रामकता’ पर खुलकर बोलना होगा। उन्होंने सीधे तौर पर तो चीन का नाम नहीं लिया, लेकिन यह साफ है कि जापान के पड़ोस में चीन द्वारा की जा रही कार्रवाइयों ने उन्हें चिंतित कर दिया है और उनकी एफओआइपी योजना में भारत को एक “अपरिहार्य भागीदार” के रूप में इसी वजह से शामिल किया गया है। उनकी यात्रा का समय भी संयोग से चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मास्को यात्रा से टकराया है। जब शी ने मंगलवार को एकजुटता प्रदर्शित करने की मुद्रा में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात की, उस वक्‍त किशिदा यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की का समर्थन करने के लिए कीव निकल गए। युद्ध शुरू होने के बाद यह उनकी पहली यूक्रेन यात्रा है।

भारत ने किशिदा का स्‍वागत किया क्‍योंकि एक तो नई दिल्ली के टोक्यो के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और दूसरे, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग (क्वाड) का संदर्भ भी है। दोनों देशों के बीच कई स्‍तर पर सहयोग जारी है, जिनमें बहुप्रतीक्षित “बुलेट ट्रेन” परियोजना के लिए जापानी से मिलने वाला कर्ज और बांग्लादेश व भारत के पूर्वोत्तर को जोड़ने के लिए बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर काम करने की योजना शामिल है। जापान और भारत को क्रमश: जी-7 और जी-20 के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्राथमिकताओं को समन्वित करने और यह सुनिश्चित करने से बहुत कुछ हासिल करना है ताकि दक्षिणी दुनिया के देशों (ग्लोबल साउथ) को दोनों शिखर सम्मेलनों के नतीजों का उचित हिस्सा मिले। इसके अलावा, यूक्रेन युद्ध का अंत और दोनों देशों के पड़ोस में स्थित चीन की आक्रामकता के खिलाफ एक प्रतिरोध भी साझा लक्ष्य हैं। हालांकि, यह मानना गलत होगा कि चीन के मसले पर दोनों देशों का पक्ष एक जैसा है। भारत के विपरीत, जापान अमेरिका के गठबंधन का हिस्सा है। रूस के खिलाफ प्रतिबंधों में भी जापान शामिल है, जबकि भारत ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन की कार्रवाइयों पर अपनी चिंताओं के बारे में मुखर रहा है, लेकिन दक्षिण चीन सागर, ताइवान जलडमरूमध्य आदि में चीन की कार्रवाइयों की सीधे आलोचना करने से वह बचता रहा है। मई में जी-7 के विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में मोदी हिरोशिमा की यात्रा करने वाले हैं। इसके बाद शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में शी और पुतिन की मेजबानी भी वे करेंगे। ऐसे में भारत भू-राजनीतिक मुद्दों की तनी हुई रस्‍सी पर जिन सधे कदमों से चल रहा है, उसमें जापान जैसे प्रिय भागीदार के इशारे पर आया हल्का सा बदलाव भी एक दबाव ही प्रतीत होगा।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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