सन 2020 में शुरू की गई नई आयकर प्रणाली के तहत टैक्स-फ्री आमदनी की सीमा को 5 लाख से बढ़ाकर 7 लाख किए जाने पर अब तक काफी लिखा जा चुका है। इसमें मौजूदा टैक्स छूट के नियम को नहीं अपनाने वाले लोगों के लिए कम टैक्स दर की व्यवस्था की गई है। जानकारों ने अलग-अलग गणित से यह तय करने की कोशिश की कि आय और बचत का वह कौन सा स्तर है, जहां करदाताओं को नए “डिफ़ॉल्ट” कर व्यवस्था पर “स्विच” करने पर विचार करना चाहिए। विपक्ष ने इस बात को लेकर चिंता जताई है कि सरकार “मध्यम वर्ग को कुछ सामाजिक सुरक्षा देने वाली” छूटों को पूरी तरह खत्म करना चाहती है। उद्योग जगत के लोग इस बात से चिंतित हैं कि इससे बचत दर और निवेश पर बुरा असर पड़ेगा। सरकारी अमले ने अब तक दूसरे दावों के साथ-साथ यह भी कहा है कि इससे बचत दर पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सरकार का कहना है कि कम आमदनी वाले लोग इतनी बचत नहीं करते कि वह टैक्स में छूट लेने वाली सुविधाओं का लाभ उठा सके और इस वजह से उन्हें ज्यादा टैक्स भरना पड़ता है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार को कहा, “वयस्क होने के नाते, आपको पता होना चाहिए कि कौन सी व्यवस्था आपके अनुकूल है।” ये सभी तर्क अलग-अलग तरीके से सही हैं। हालांकि, बड़े स्तर पर यह देखा जाना चाहिए कि बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो इस स्थिति में नहीं होते कि वह तय कर सकें कि उनके लिए क्या सही है। खास तौर पर कम कमाने वाले लोग, जिन्हें सरकार की नजर में नई कर प्रणाली का सबसे ज्यादा फायदा होगा।
भारत की साक्षरता और खासकर वित्तीय साक्षरता का जो स्तर है उसके हिसाब से लगता नहीं कि ज्यादातर करदाता उपभोग और बचत के सही अनुपात को समझ पाएंगे, सुरक्षित बचत करना और मुद्रास्फीति के हिसाब से बचत करना तो दूर की बात है। वयस्क मनुष्य का व्यवहार उतना तर्कसंगत नहीं होता, जितना अर्थशास्त्रियों को लगता है। मसलन, युवाओं में साफ तौर पर ज्यादा उपभोग की प्रवृत्ति होती है और इसलिए टैक्स कटने के बाद जेब में आने वाले वेतन की उच्च दर की वजह से नई कर व्यवस्था आकर्षक हो सकती है। जो लोग बाजार की बारीकियों और दस्तावेजों में निहित जोखिमों को ठीक से नहीं समझते उन्हें वित्तीय उत्पाद, नियमित रूप से
गलत तरीके से बेचा जाता है। जिस देश में लोगों को सार्वभौमिक सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा नहीं दी जाती, वहां पर छूट-आधारित पुरानी कर प्रणाली, परिवारों को जीवन की अनिश्चितताओं से निपटने के लिए विवेकपूर्ण तरीके से निवेश को प्रोत्साहित करती थी। साथ ही, उनके काम-काज में पिसे रहने के दौरान, घर जैसी एक बेहद जरूरी संपत्ति हासिल करने की दिशा में भी ले जाती थी। भारत में खुदरा तरीके से शेयर खरीदने वालों की संख्या बढ़ी है, लेकिन हर कोई इक्विटी बाजारों की जोखिम नहीं संभाल सकता या फिर अपने तरीके से प्रभावित करने वाले ऑपरेटरों के असर से नहीं बच सकता। इसलिए, पुरानी कर व्यवस्था से छिटककर दूर जाने के लिए सरकार और नियामकों को वित्तीय साक्षरता बढ़ाने की दिशा में कोशिश करनी चाहिए। साथ ही, शेयरों की खरीद-बिक्री के अनैतिक तरीकों पर लगाम कसना चाहिए, जिसमें पैसे डूब जाते हैं। अगर लोगों को अपना हित तय करने में सरकारी प्रोत्साहन की जरूरत नहीं होती, तो फिर भविष्य निधि और पेंशन में अनिवार्य योगदान करने की व्यवस्था की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती।
This editorial has been translated from English, which can be read here.