केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा हाल ही में राज्यसभा में इस कानूनी स्थिति यानी राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) के सदस्यों के संचित कोष को राज्यों को “रिफंड और वापस जमा” करने की इजाजत देने संबंधी किसी भी प्रावधान की गैर- मौजूदगी को दोहराए जाने का असर पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की ओर लौटने का इरादा करने वाले राज्यों पर पड़ेगा। मंत्रालय का यह रुख उन्हीं बातों को दर्शाता है जो पेंशन फंड नियामक और विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) अधिनियम, 2013, पीएफआरडीए (राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली के तहत निकास और निकासी) विनियम, 2015 और अन्य नियमों में कही गईं हैं। केंद्र सही वजहों से यह भी स्पष्ट करता रहा है कि वह ओपीएस को बहाल करने के किसी भी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रहा है। अगर विशेषज्ञों और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की माने तो राजकोषीय संसाधनों में वार्षिक बचत, जो कि ओपीएस में प्रत्यावर्तन को अपरिहार्य बनाती है, अल्पकालिक है। आगे चलकर पेंशन भुगतान के रूप में भारी देनदारी इस संभावित राजकोषीय लाभ की जगह ले लेगी। आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने इस विचार, जिसमें आम जनता की बनिस्बत सरकारी कर्मचारियों को ज्यादा विशेषाधिकार हासिल हैं, को “प्रतिगामी” तक कहा है। आम जनता में से कईयों को कोई सामाजिक सुरक्षा मयस्सर नहीं है।
फिर भी, यह मुद्दा थमने का नाम नहीं ले रहा है क्योंकि सरकारी कर्मचारी या सरकार द्वारा नियंत्रित उद्यमों में काम करने वाले लोग इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। चाहे महाराष्ट्र हो, उत्तर प्रदेश हो या फिर कर्नाटक, इन राज्यों में कर्मचारियों ने ओपीएस को फिर से बहाल करने की मांग करते हुए हड़ताल किया है। पर, एनपीएस के तहत पेंशन की राशि को लेकर छाई अनिश्चितता के बारे में उनकी चिंता वाजिब है क्योंकि एक गुणवत्तापूर्ण सेवानिवृत्त जीवन की उनकी आकांक्षा तर्कसंगत है। पीएफआरडीए द्वारा विनियमित होने के बावजूद एनपीएस जहां बाजार से जुड़ा एवं निश्चित योगदान वाला एक उत्पाद है, वहीं ओपीएस एक निश्चित लाभ वाली पेंशन योजना है जिसमें लाभार्थियों को आम तौर पर उनके अंतिम वेतन का 50 फीसदी हिस्सा मिलता है और पूरी लागत सरकार द्वारा वहन की जाती है। लिहाजा, ओपीएस की मांग को एकदम से खारिज करने से स्थितियां और बदतर ही होंगी। यह वक्त का तकाजा है कि केंद्र एक ऐसी योजना तैयार करे जिसमें पुरानी और नई योजना की खासियतों का मिश्रण हो। कर्मचारियों के योगदान वाले पहलू को बरकरार रखते हुए, नई योजना में सरकार की तरफ से अपेक्षाकृत ज्यादा योगदान का प्रावधान किया जा सकता है। निर्धारित न्यूनतम पेंशन राशि सुनिश्चित नहीं होने की स्थिति में भी सरकार द्वारा हस्तक्षेप की व्यवस्था होनी चाहिए। इस संदर्भ में, पिछले साल आंध्र प्रदेश द्वारा किया गया एक प्रस्ताव काबिलेगौर है। एनपीएस के अंशदायी स्वरूप को ध्यान में रखते हुए, यह प्रस्ताव मूल वेतन के 33 फीसदी की गारंटी देता है।
आवश्यक होने पर, अन्य राज्यों की जरूरतों के अनुरूप इसमें सुधार भी किया जा सकता है। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं, जिसमें एक उदार बीमा योजना शामिल हो, पर विचार किया जा सकता है। कर्मचारियों को अपनी तरफ से एक व्यावहारिक रवैया दिखाना चाहिए और इस समस्या को हल करने के लिए इच्छुक होना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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