वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव अब सिर्फ 19 महीने दूर है और एक बार फिर विपक्षी एकता के सुर ने जोर पकड़ लिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले एक महीने में दो बार दिल्ली आ चुके हैं। वे समवेत धुन पर आलाप लेने की कोशिश में जुटे हैं। यह राग छेड़ने वाले वे अकेले नहीं है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) विरोधी मोर्चा की तलाश में दिल्ली, पटना और बेंगलुरु की यात्राएं की। वाम दल नियमित रूप से सभी “धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों” को एकजुट होने का आह्वान करते रहे हैं, बिना यह बताए कि इस दायरे में कौन-कौन से दल आएंगे। लेकिन इन वार्ताओं के बावजूद, 1977 जैसा विपक्षी गठबंधन बनने की संभावना नजर नहीं आती। हाल ही में हरियाणा में इंडियन नेशनल लोक दल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में कई दल एकजुट हुए, लेकिन कांग्रेस को इससे अलग रखा गया। इस पर श्री कुमार को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा कि कांग्रेस के बिना कोई भी विपक्षी गठबंधन सार्थक नहीं हो सकता। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कभी भी भाजपा पर निशाना साधने का मौका नहीं छोड़ते, लेकिन अब वे बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने को लेकर संशय में हैं। साथ ही, वे श्री कुमार के उत्तर प्रदेश में पैर पसारने की कोशिश की भी मुखालफत कर रहे हैं। किसी भी तरह की विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस बहुत जरूरी है। इस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अभी ‘भारत जोड़ो’ के नारे के साथ कन्याकुमारी से कश्मीर की यात्रा पर हैं। लेकिन, हकीकत यह है कि पार्टी इस समय आंतरिक राजनीति की बवंडर में भी फंसी हुई है।
आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में उभरने की अपनी संभावनाओं पर मनन कर रहे हैं और वे ऐसे किसी भी वृहत्तर गठबंधन में शामिल होकर अपने इस दांव को कमजोर नहीं करना चाहते। संसद की दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), आश्चर्यजनक रूप से ‘विपक्षी एकता‘ पर खामोश है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने 2019 के चुनाव से पहले जो उत्साह दिखाया था, अब उनमें वह उत्साह नजर नहीं आ रहा। उपराष्ट्रपति चुनाव में टीएमसी ने विपक्ष का साथ देने के बजाय चुनाव में शामिल नहीं होने का फैसला लिया था। ऐसा नहीं है कि विपक्षी एकता बनाने भर से भाजपा हार जाएगी। वर्ष 2019 में उत्तर प्रदेश में, सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन राज्य में भाजपा को पीछे धकेलने में वे नाकाम रहे। फिर भी, राष्ट्रीय स्तर की कोशिशों की तुलना में राज्य स्तर पर भाजपा-विरोधी पार्टियों की साझेदारी ज्यादा असरदार साबित हो सकती है। राष्ट्रीय या कई राज्यों के स्तर पर ये पार्टियां जितनी ज्यादा एकता दिखाने की कोशिश करती हैं, उतना ही ज्यादा अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं। हर राज्य पर अलग-अलग ध्यान केंद्रित करना और स्थानीय समीकरणों को ध्यान में रखना, शायद इन पार्टियों के लिए ज्यादा मुफीद साबित हो सकता है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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