जुर्म साबित हो जाने के बाद मौत की सजा वाले अपराधों से जुड़े मामलों में सजा सुनाना वाकई एक जटिल समस्या है। ट्रायल कोर्ट के जजों को यह फैसला लेना होता है कि क्या सिर्फ मौत की सजा ही न्याय के उद्देश्यों को पूरा करेगी या फिर आजीवन कारावास काफी होगा। एक उचित मानदंड के रूप में, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया है कि सिर्फ “दुर्लभतम में से दुर्लभ” मामलों में ही मौत की सजा आयद की जा सकती है। बाद के फैसलों में इस सिद्धांत को पुष्ट करने की कोशिश की गई है कि किसी मामले को ‘दुर्लभतम में से दुर्लभ’ श्रेणी का मानने का एकमात्र मानदंड अपराध की भीषण प्रकृति नहीं हो सकती है। अपराधी, उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उसकी मानसिक स्थिति भी इस संबंध में प्रमुख कारक हैं। व्यवहार में, किसी मुकदमे में सजा सुनाने का पहलू अदालत द्वारा जुर्म साबित होना दर्ज कर लिए जाने के बाद आता है। यह काम अक्सर फैसले के दिन ही किया जाता है, जिसमें दोषी की ओर से सजा को ‘कम करने वाली परिस्थितियों’ और अभियोजन पक्ष की ओर से मामले की ‘गंभीर परिस्थितियों‘ के बारे में सिर्फ कुछ सीमित तर्क सुने जाते हैं। सजा के सवाल पर दोषियों को एक सार्थक मौका देने के मुद्दे को संविधान पीठ के हवाले करने का तीन जजों की पीठ का ताजा आदेश सजा की प्रक्रिया को मानवीय बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
जुर्म साबित होने वाले दिन ही सजा सुनाने को कई फैसलों में मान्य किया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अक्सर यह कहा गया है कि जिन मामलों में दोषी को सजा कम करने वाले कारकों को पेश करने का एक सार्थक मौका दिया गया है, वहां महज जुर्म साबित होने वाले दिन ही मौत की सजा सुना दिए जाने का तथ्य सजा को दूषित नहीं करता है। कुछ उच्च न्यायालयों ने दोषियों को सजा कम करने वाले कारकों को पेश करने का मौका दिया है ताकि निचली अदालत में सजा सुनाने की प्रक्रिया में हुई कमी का कोई मतलब न रह जाए। हालांकि, मौजूदा सोच इस तरफ झुक रही है कि अदालतों को जेल अधिकारियों, प्रमाणक अधिकारियों और यहां तक कि प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिकों से रिपोर्ट मांगनी चाहिए ताकि मौत की सजा न देने के पक्ष में सजा को कम करने वाले कारकों का सटीक आकलन किया जा सके। मौत की सजा के सवाल को संविधान पीठ को भेजने वाले आदेश में, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह सवाल भी उठाया है कि आखिर सुनवाई के किस स्तर पर सजा को कम करने वाले कारकों को पेश किया जाना चाहिए। उसने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि फिलहाल तराजू का पलड़ा दोषियों के खिलाफ झुका हुआ है, क्योंकि जुर्म साबित हो जाने के बाद ही उन्हें सजा को कम करने वाली परिस्थितियों के बारे में बोलने का मौका मिलता है। दूसरी ओर, अभियोजन पक्ष शुरू से ही अपना यह नजरिया पेश करता रहता है कि अपराध कितना जघन्य है और आरोपी किस कदर अधिकतम सजा का हकदार है। संविधान पीठ कुछ ऐसे नए दिशा-निर्देश दे सकती है जिसके तहत ‘ट्रायल कोर्ट’ सजा तय करने से पहले खुद ही अपराधी के पालन-पोषण, उसकी शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से संबंधित कारकों की व्यापक जांच कर सकें। निश्चित रूप से, कानून की किताब में मौत की सजा का प्रावधान बरकरार रहने तक किसी को फांसी के तख्ते पर भेजने संबंधी कानूनी और नैतिक दुविधा बनी रहेगी।
This editorial has been translated from English which can be read here.