पिछले महीने या उसके आसपास, जब से सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक को राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड के जरिए हासिल हुए चंदे की जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए मजबूर किया है, तब से इस संबंध में उजागर होते विभिन्न विवरणों ने 2018 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुवाई वाली सरकार द्वारा इस योजना को पेश किए जाने से पहले से विनियामक एवं नीति-निर्माण संस्थानों में इसके विरोधियों द्वारा जाहिर की जा रही सबसे बुरी आशंकाओं की पुष्टि ही की है। एक संयुक्त जांच, जिसमें द हिंदू ने भी शिरकत की, में यह पाया गया कि 2016-17 से 2022-23 के दौरान एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा सहने वाली कम से कम 33 कंपनियों ने लगभग 582 करोड़ रुपये का चंदा दिया, जिसका 75 फीसदी हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा को गया। घाटे में चल रही कंपनियां पर्याप्त धनराशि चंदे में दे रही थीं; लाभ कमाने वाली कंपनियां अपने कुल लाभ से ज्यादा का चंदा दे रही थीं; कुछ दाता कंपनियां शुद्ध लाभ या प्रत्यक्ष करों से जुड़ी जानकारियां नहीं दे रही थीं; कुछ नई निगमित कंपनियां (गठन के बाद) निर्धारित तीन साल की अवधि पूरा होने के पहले से ही चंदा दे रही थीं – नियमों को तोड़ने और फंडिंग के संदिग्ध स्रोतों की फेहरिस्त काफी लंबी है। इन चंदों की प्रकृति कई सवाल खड़े करती है। क्या घाटे में चल रही ये कंपनियां धन शोधन का काम कर रही थीं? क्या लाभ/हानि की सूचना नहीं देने वाली फर्में मुखौटा कंपनियां (शेल कंपनियां) थीं? क्या भरपूर लाभ कमाने, लेकिन काफी लंबी अवधि से कुल प्रत्यक्ष करों का भुगतान नहीं करने वाली दाता कंपनियां कर चोरी में लगी हुई थीं? ये सभी सवाल पहले उठाए गए अन्य सवालों के पूरक हैं। क्या प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी एजेंसियों के जांच के घेरे में आनेवाली कई कंपनियों के सत्तारूढ़ पार्टी को चंदा देने वाले महत्वपूर्ण दानकर्ता होने का तथ्य इस बात का एक संकेत है कि इन एजेंसियों का इस्तेमाल प्रतिदान सुनिश्चित करने वाले एक साधन के रूप में किया जा रहा था?
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और भारत निर्वाचन आयोग के अधिकारी इन आशंकाओं पर जोर दे रहे थे कि इस बॉन्ड योजना का इस्तेमाल धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) और कर चोरी में किया जा सकता है। फिर भी, केंद्रीय वित्त मंत्रालय इस योजना को आगे बढ़ाता रहा। इस योजना के लागू होने के साढ़े पांच सालों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों ने चुनावी बॉन्ड के जरिए हजारों करोड़ रुपये भुनाए, जिसका बड़ा हिस्सा भाजपा को मिला। जहां गंभीर समस्याओं वाली इस अपारदर्शी योजना को खत्म करने के लिए अदालत की सराहना की जानी चाहिए, वहीं इस अवधि के दौरान हुए प्रत्येक चुनाव से पहले संदिग्ध स्रोतों से बड़ी मात्रा में चंदा दिए जाने का तथ्य चुनाव अभियान के वित्तपोषण की प्रकृति पर एक कलंक है। अब जबकि देश की राजनीतिक व्यवस्था आम चुनाव के प्रचार में लीन है, ऐसे में चुनावी बॉन्ड योजना के प्रभावों का आकलन करना मतदाताओं पर निर्भर है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि एकबारगी चुनाव खत्म हो जाने और नई सरकार के सत्ता में आ जाने के बाद, संसद और नियामक संस्थानों को चंदे की प्रकृति और दानदाताओं व प्राप्तकर्ताओं द्वारा कानून तोड़े जाने की गहन जांच करनी चाहिए। न्यायपालिका को इन संस्थानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चुनाव अभियान और चुनावी वित्तपोषण की सफाई जरूरी है।