बीते 2 मार्च को ब्रह्मपुरम के लैंडफिल में लगी आग ने राज्य के निष्प्रभावी ठोस-कचरा प्रबंधन को उजागर कर दिया है, जो स्रोत के स्तर पर कचरे की छंटाई में होने वाली खामी से लेकर लैंडफिल के रखरखाव में ठेकेदारों की गैर-जिम्मेदारी तक हर कदम पर व्याप्त है। ब्रह्मपुरम में आग लगने की यह कोई पहली घटना नहीं है। सीएसआइआर-नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर इंटरडिसिप्लिनरी साइंस एंड टेक्नोलॉजी द्वारा 2019 और 2020 में किए गए अध्ययनों ने बताया था कि कई बार लगी आग से वातावरण में अत्यधिक जहरीले पदार्थ फैले थे। इस बार की आग में ऐसी ही आशंका है। ये तथ्य दो समस्याओं का संकेत देते हैं- साइट पर जमा ठोस कचरा और इसे जल्दी से पर्याप्त रूप से नहीं हटाया नहीं जाना। दो प्रकार की विफलताएं भी हैं। पहला, कोच्चि में जितना कचरा पैदा होता है उसके लिए वहां का ठोस-कचरा प्रबंधन तंत्र अपर्याप्त है और ब्रह्मपुरम का कचरे से ऊर्जा बनाने वाला प्लांट बेकार है। पहली समस्या तो पूरे भारत में पायी
जाती है। इसकी वजह जरूरत से ज्यादा उपभोग, संसाधनों के उपयोग के मामले में दक्षता की कमी और इस तरह के कचरे की ठीक से न संभाला जाना है। ठोस कचरा ‘बायोडिग्रेडेबल’ होता है जब इससे खाद बनायी जाती है, या यह ‘बायोडिग्रेडेबल’ नहीं होता जब इसका दूसरा इस्तेमाल, जलाया या लैंडफिल किया जाता है। ऐसा कचरा कहीं और नहीं जाता है; इसलिए यदि इन तीन रास्तों में से कोई भी एक बंद हो जाता है तो कचरा दूसरे रास्तों में इकट्ठा होगा। यही वजह है कि लैंडफिल शहरी शिथिलता के संकेत हैं। कचरे से जुड़ी दूसरी समस्या का संबंध कचरे को भंडारों से कुशलतापूर्वक नहीं हटाया जाना है – यानी कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों में इसकी खपत और व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण धातुओं, कचरा-से बनाए जाने वाले ईंधन और जैविक-मिट्टी को निकाल कर- और ज्वलनशील कचरे को इस तरह से संग्रहित करना जो आग को रोक नहीं पाए।
ऐसा लगता है कि ब्रह्मपुरम का संयंत्र बंद पड़ा हुआ है। ऐसी सुविधाएं केवल तभी काम करती हैं जब उनके द्वारा उत्पादित अपेक्षाकृत अधिक महंगी बिजली खरीदी जाए, उन्हें प्राप्त होने ज्वलनशील कचरे की मात्रा उनके द्वारा उत्पादित खरीदे जाने वाली ऊर्जा के समानुपाती हो और वहां आने वाले कचरे में ऊर्जा उत्पादन करने के लिए पर्याप्त कैलोरी के तत्व हों। इस मामले में यह संयंत्र निष्क्रिय है। राज्य सरकार को यह बताना चाहिए कि ऐसा क्यों है और इसे पुनर्जीवित करना चाहिए। लैंडफिलिंग और बायोमाइनिंग अनुबंधों के बारे में सरकार को जवाब देना होगा, और यह भी कि ठेकेदार अपने दायित्वों में क्यों विफल रहे और इसमें सुधार को जल्दी क्यों लागू नहीं किया गया। यह चिंता का विषय है कि राज्य ने इस तरह की आग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट और ‘नेशनल ग्रीन
ट्रिब्यूनल’ के आदेशों की अनदेखी की। जलवायु संकट के दौर में भ्रष्टाचार लापरवाही को दर्शाता है। केरल को केंद्रीकृत कचरा प्रसंस्करण त्याग देना चाहिए और अपनी ठोस कचरा प्रबंधन नीति द्वारा प्रोत्साहित विकेंद्रीकृत माध्यम अपनाना चाहिए। कचरे के चक्रीय प्रबंधन की अर्थव्यवस्था कायम न कर पाने की सूरत में राज्य 2026 तक कचरामुक्त होने का अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएगा। यह तब तक नहीं होगा जब तक कचरे के पहाड़ खुद में जलवायु प्रदूषक बने रहेंगे।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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