चुनाव का नियमित आयोजन और दूसरे देशों की तुलना में मतदान प्रक्रिया में अपेक्षाकृत बड़ी तादाद में लोगों की भागीदारी, भारतीय लोकतंत्र की अहम सफलताओं में एक है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के उपयोग की वजह से मतदान प्रक्रिया आसान हुई है, लेकिन इस तथ्य के अलावा ज्यादा मतदान की एक बड़ी वजह भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा पंजीकरण अभियान चलाया जाना भी है। वृद्ध लोगों की मृत्यु के अलावा, शहरी क्षेत्रों में प्रवासियों की बढ़ती आबादी और जनसांख्यिकीय बदलाव की वजह से नए लोगों को मतदाता सूची में शामिल करने के कारण, चुनाव आयोग के सामने समय-समय पर मतदाता सूची में बदलाव करने की चुनौती रहती है। हालांकि, नियमित चलने वाले चुनाव चक्र ने इस प्रक्रिया को आसान भी बनाया है। इसमें मतदाताओं को उनकी उम्र और मौजूदा निवास स्थान का प्रमाण दिखाकर इस सूची में पंजीकरण करने की अनुमति दी गई है। स्कूली शिक्षा पाए लोगों की आबादी बढ़ने और एक ही घर का पता कई पहचान दस्तावेजों में दर्ज होने की वजह से मतदाता सूची में पंजीकरण अपेक्षाकृत आसान प्रक्रिया है। अब सवाल यह उठता है कि चुनाव अधिकारी मतदाता सूची में पंजीकरण के लिए लोगों को आधार संख्या से अनिवार्य रूप से जोड़ने के लिए क्यों मजबूर कर रहे हैं? कई हालिया रिपोर्ट इस बात की ओर संकेत कर रही हैं। दिसंबर 2021 में, लोकसभा ने मतदाता पहचान पत्र को आधार संख्या से जोड़ने के लिए चुनाव कानून (संशोधन) विधेयक पारित किया, ताकि मतदाता सूची में नाम के दोहराव की त्रुटियों से बचा जा सके। लेकिन उसके बाद सरकार और फिर चुनाव आयोग के अधिकारियों ने जोर देकर कहा कि यह प्रक्रिया स्वैच्छिक होगी।
आधार संख्या नागरिकता का प्रमाण नहीं है। यह भारत के सभी निवासियों को जारी किया जाता है, जबकि भारत में रहने वाले वयस्क नागरिक ही मतदान के पात्र हैं। इस तरह देखें, तो मतदाता सूची के सत्यापन के लिए आधार संख्या का मिलान करना पूरी तरह से त्रुटिरहित प्रक्रिया नहीं है। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने डेटा के हवाले से यह दिखाया है कि आधार डेटाबेस में खुद से रिपोर्ट की गई त्रुटियां, चुनावी डेटाबेस की तुलना में कहीं ज्यादा हैं। मतदाता पहचान पत्र से साथ आधार को लिंक करने से बड़े पैमाने पर योग्य मतदाताओं के नाम मनमाने तरीके से सूची से गायब होने के मामले भी सामने आए हैं। इसकी मिसाल हाल ही में हुए तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनावों में देखने को मिली। आधार संख्या का इस्तेमाल कई तरह की सेवाएं मुहैया कराने में किया जा रहा है। ऐसे में इसे मतदाता पहचान पत्र के साथ जोड़ने से इस बात का खतरा है कि बूथ स्तर के डेटा तक पहुंच रखने वाली एजेंसियां इन जानकारियों को आपस में मिलाकर इसका दुरुपयोग मतदाताओं की प्रोफाइलिंग करने में कर सकती हैं। डेटा सुरक्षा कानून न होने की वजह से इस जोखिम की आशंका और बढ़ जाती है। विभिन्न देशों में चुनावों का अध्ययन करने वाले विद्वानों का मानना है कि आसान प्रक्रिया और चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थानों की प्रभावशीलता ने मतदान को आसान बनाने और चुनावी लोकतंत्र के रूप में भारत की एक अलग छवि तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई है। आधार को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने की जिद इन सिद्धांतों के खिलाफ है। मतदाताओं की पुष्टि करने की प्रक्रिया में चुनाव आयोग को मौजूद दूसरे दस्तावेजों तक खुद को सीमित रखना चाहिए और मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने का विकल्प स्वैच्छिक होना चाहिए।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.
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