जड़ता और हस्तक्षेपः सामाजिक मसलों का निर्वहन

सामाजिक मुद्दों पर विधायी निष्क्रियता न्यायिक हस्तक्षेप को वैध बनाएगी

March 15, 2023 11:52 am | Updated 11:52 am IST

समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे को संविधान पीठ के पास भेजने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लैंगिक समानता सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जा सकता है, इस आशंका के बावजूद कि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रहा है। इस मामले के याचिकाकर्ताओं का मानना है कि समान लिंग के लोगों के बीच विवाह को कानूनी दर्जा दिया जाना 2018 में आए उस अदालती फैसले का स्वाभाविक नतीजा है जिसने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया था। इसके जवाब में सरकार की दलील है कि विपरीतलिंगी दो व्‍यक्तियों के बीच विवाह की परंपरागत अवधारणा से दूर जाने की कोई जरूरत नहीं है और अगर ऐसा बदलाव होना ही है, तो उसे विधायिका की तरफ से आना चाहिए। ऐसे में अदालत के सामने सवाल यह है कि क्या उसे भारत में विवाह कानूनों, विशेष रूप से विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के प्रावधानों की व्याख्या समान लिंग वाले जोड़ों के बीच वैवाहिक संबंधों की अनुमति देने के रूप में करनी चाहिए। यह अधिनियम किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच विवाह की अनुमति देता है और इसका उपयोग उन लोगों द्वारा किया जाता है जो ‘पर्सनल लॉ’ के तहत अपने विवाह को पंजीकृत नहीं करा पाते हैं। केंद्र सरकार ने तर्क दिया है कि समान लिंग के वयस्कों के बीच सहमति से संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने से समलैंगिकता से जुड़ा कलंक हट गया है, लेकिन इससे उन्‍हें विवाह का अधिकार नहीं मिल जाता। उसका कहना है कि राज्य विषमलैंगिक जोड़ों से जुड़े विवाहों तक अपनी मान्यता को सीमित करने का हकदार है। इसमें दावा किया गया है कि समलैंगिक जोड़ों को विवाह की परिभाषा से बाहर रखने में कोई भेदभाव जैसी बात नहीं है।

समानता की कसौटी पर देखें, तो सवाल बहुत जटिल नहीं है। विवाहित विषमलैंगिक जोड़ों के लिए उपलब्ध किसी भी नागरिक अधिकार से समलिंगियों को वंचित नहीं किया जाना चाहिए, यह मान्‍यता दी जा सकती है। इसके बाद संपत्ति और उत्तराधिकार जैसे सांयोगिक मुद्दे भी ऐसे हैं जो बड़ी मुश्किल नहीं खड़ी करते। समस्‍या केंद्र सरकार के उस तर्क में है जो समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के खिलाफ धार्मिक मानदंडों और सांस्कृतिक मूल्यों का आह्वान करता है। यह तर्क कमजोर और अपर्याप्त है। यह कहना बेकार की बात है कि इससे ठोस सामाजिक मूल्‍यों और आस्‍था को आघात पहुंचेगा। महज यह बात कि बहुत से लोग विवाह को एक संस्कार या

पवित्र बंधन मानते हैं, समान लिंग के लोगों के बीच बंधन को समान दर्जा देने से इनकार करने के लिए पर्याप्‍त नहीं है। न ही इससे यह नतीजा निकलता है कि समलैंगिक विवाह सामाजिक और आर्थिक अनुबंध के रूप में विवाह के आवश्यक चरित्र को कमजोर कर देंगे। सवाल यह है कि क्या समान-लिंग के बीच विवाहों की मान्यता देना कोई समाधान है और अगर हां, तो क्या यह न्यायिक हस्तक्षेप से होगा या विधायी कार्रवाई के माध्यम से? एक स्‍वीकार्य प्रस्‍ताव यह हो सकता है कि विधायिका को ऐसा दूरगामी परिवर्तन लाने में शामिल होना चाहिए जो सभी धर्मों के ‘पर्सनल लॉ’ को प्रभावित कर सके। एक जिम्‍मेदार सरकार, जो इसे नीतिगत मामले के रूप में देखना चाहती है और इसमें अदालतों का हस्‍तक्षेप नहीं चाहती, को लैंगिक पहचान से इतर शादी करने या परिवार बनाने के लिए किन्‍हीं दो व्‍यक्तियों के अधिकार पर अपने दम पर विचार करना चाहिए। ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर विधायी निष्क्रियता न्यायिक हस्तक्षेप को आमंत्रित करेगी और वैधता देगी।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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