निरंतर, लेकिन धीमाः ‘वाइपर’ मिशन और भारत के लिए सबक

भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को अपनी पूरी क्षमता को भुनाने के लिए ज्यादा संसाधन चाहिए 

Published - October 01, 2024 10:11 am IST

जुलाई में, नासा ने चंद्रमा के लिए अपने ‘वोलाटाइल्स इन्वेस्टीगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर’ (वाइपर) मिशन को विकास में देरी और लागत में भारी वृद्धि के बाद रद्द कर दिया। तब तक उसके इंजीनियरों ने इसे पूरी तरह असेंबल कर लिया था और कुछ परीक्षण भी कर लिये थे, लेकिन नासा अपने फैसले पर अड़ा रहा। अचानक लिये गये इस फैसले से वैज्ञानिकों को भारी निराशा हुई। वाइपर को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में जलीय बर्फ का वितरण और जिन मिट्टियों में यह पायी गयी उसे, तीन महीने में, मानचित्रित करने के लिए डिजाइन किया गया था। कुल मिलाकर, गोल्फ-कार्ट के आकार का रोवर एक स्पेसएक्स फॉल्कन हैवी रॉकेट से प्रक्षेपित किया जाना था और एस्ट्रोबोटिक के ‘ग्रिफिन’ लैंडर का इस्तेमाल कर उसे अपने काम पर तैनात किया जाना था। यह सब नासा के कॉमर्शियल लूनर पेलोड सर्विसेज कार्यक्रम के जरिए प्रबंधित होना था। चंद्रमा पर उतरना एक महंगी और समय-खपाऊ कवायद है। वाइपर को उसके अंतिम चरण में रद्द करने के नासा के फैसले ने ‘विज्ञान, अंतरिक्ष, और तकनीक पर अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की समिति’ और उस व्यापक अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचा है, जो वाइपर की गैरमौजूदगी में चीन के लगातार जटिल हो रहे चंद्र कार्यक्रम के लिए अग्रणी बनने का अवसर देखता है। चंद्रमा के लिए दुनिया की यह दौड़ संभवत: महत्वपूर्ण वाणिज्यिक और भूराजनीतिक फायदों के द्वार खोलती है। वाइपर के अमेरिकी अगुवाई वाली उस‘लूनर एक्सिस’(आर्टेमिस एकॉर्ड्स द्वारा परिभाषित) का केंद्रीय घटक बनने की उम्मीद थी, जो भारत को उसके नेतृत्वकर्ताओं में शुमार करती है। फिर भी, भारत ने एक मौका उस वक्त गंवा दिया जब, 18 सितंबर को, केंद्रीय कैबिनेट ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के उस प्रस्ताव को मंजूरी दी, जिसमें देश के चंद्र कार्यक्रम का दूसरा चरण, सैंपल-वापसी अभियान, चंद्रयान-4 के साथ शुरू करने की बात कही गयी थी।

पिछले 23 अगस्त, 2023 को चंद्रमा की सतह पर चंद्रयान-3 लैंडर उतरने के चंद पलों बाद ही, यह दावा करने वाली खबरें आयीं कि भारत ने एक बार फिर खुद को उन देशों के एक छोटे व विशिष्ट समूह में शामिल कर लिया है जिन्होंने चंद्रमा पर ऑटोनोमस सॉफ्ट-लैंडिंग हासिल कर ली है। लेकिन ऐसे दावे अभियान संचालन के दृष्टिकोण से इन देशों की अंतरिक्ष एजेंसियों के बीच बड़े अंतर की अनदेखी करते हैं। इस बारे में प्रासंगिक एक अंतर यह है कि इसरो एक साथ कई बड़े अभियानों को क्रियान्वित करने में अक्षम है। इसके बजाय, वह ‘एक समय में एक बड़ा अभियान’ पद्धति का पालन करता है। यह संसाधन उपयोग दक्षता को अधिकतम बनाने के बदले में, संगठन को नये अवसरों पर तेजी से प्रतिक्रिया कर पाने में अक्षम बना देता है। सक्षम रहने की स्थिति में, इसरो उस ‘लूनर पोलर एक्सप्लोरर’ अभियान के लिए कैबिनेट से मंजूरी मांग सकता था (जिसकी योजना वह जापानी अंतरिक्ष एजेंसी के साथ मिलकर बना रहा है), जिसके तहत चंद्रमा पर रोवर उतार कर वाइपर से अपेक्षित कई बेहद अहम कार्य पूरे किये जा सकते थे, खासकर बड़े जलीय बर्फ भंडारों का पता लगाने का। अब भी, वाइपर की घटना को केंद्र को यह याद दिलाने की जरूरत है कि बढ़ते आवंटन और जल्द ही फंडिंग के नये तरीकों के बावजूद, भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को अपनी पूरी क्षमता को भुनाने के लिए ज्यादा संसाधनों की आवश्यकता है।

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