जिस रफ्तार से राज्यपालों का आचरण या उनकी निष्क्रियता बार – बार न्यायिक समीक्षा का मामला बन रही है, वह राजभवन और संबंधित मुख्यमंत्रियों के बीच के संबंधों की खराब स्थिति को दर्शाती है। सुप्रीम कोर्ट जल्द ही तेलंगाना सरकार की एक अनूठी याचिका पर सुनवाई करने वाला है। इस याचिका में राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए राज्यपाल डॉ. तमिलिसाई सौंदरराजन को निर्देश देने की मांग की गई है। हाल ही में, शीर्ष अदालत ने राज्यपाल द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने में कथित रूप से देरी किए जाने से व्यथित पंजाब सरकार की एक याचिका का निस्तारण किया था। यह मामला तब सुलझा था जब राज्यपाल की ओर से यह कहा गया कि राज्य सरकार द्वारा वांछित तिथि को विधानसभा की बैठक होगी। पहले के दशकों में, राज्यपालों को निर्देश देने या संवैधानिक मामलों पर उनकी निष्क्रियता पर सवाल उठाने वाली याचिका को शुरुआत में ही नकार दिया जाता था। हालांकि, राज्यपाल के ओहदे पर बैठे लोगों द्वारा इस पद का खुल्लमखुल्ला राजनीतिकरण इस हद तक किया जा रहा है कि अब अदालतों को यह जांचने के लिए विवश होना पड़ सकता है कि इस किस्म की निष्क्रियता जायज है भी या नहीं। हाल के वर्षों में कुछ राज्यपालों द्वारा निर्णयों को अनिश्चित काल तक टालने के लिए संविधान में इस बारे में किसी समय-सीमा का प्रावधान नहीं होने का बेजा इस्तेमाल करने की तकलीफदेह प्रवृत्ति देखी गई है। यह रणनीति एक निर्वाचित सरकार के विधायी एजेंडे में पुरजोर अड़ंगा डालती है।
कई राज्यों में राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच हुआ टकराव तेलंगाना में कुछ ज्यादा ही तीखा हो गया है। डॉ. सौंदरराजन ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव द्वारा उनका बहिष्कार किया जा रहा है और उनके सवालों के जवाब नहीं दिए जा रहे हैं। उधर, राज्य सरकार जाहिर तौर पर इस बात से परेशानहाल है कि वह मंत्रिमंडल से अलग हटकर स्वतंत्र रूप से कार्य करने की कोशिश कर रही हैं। राज्य सरकार द्वारा अदालत का रूख किए जाने के एक दिन बाद उनके ट्वीटर अकाउंट से किया गया एक हालिया ट्वीट कि दिल्ली की तुलना में राजभवन कहीं ज्यादा करीब है, यह दर्शाता है कि उनका रवैया इस धारणा से जुड़ा है कि राज्य सरकार उनके प्रति मित्रवत और शिष्ट नहीं है। इस किस्म के विचारों का असर संवैधानिक मसलों पर नहीं पड़ना चाहिए। एक राज्यपाल किसी विधेयक पर या तो अपनी स्वीकृति दे सकता है या उसे अस्वीकार कर सकता है या फिर उसे राष्ट्रपति की राय के लिए आरक्षित कर सकता है। उपयुक्त मामलों में, उसे पुनर्विचार के लिए वापस भी भेजा जा सकता है। हालांकि, इनमें से कोई भी कदम विधेयक के विषय-वस्तु के बारे में राज्यपाल के निजी नजरिए पर आधारित नहीं होना चाहिए। अगर कोई विधेयक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो उसपर किए जाने वाले एक सामयिक सवाल को समझा जा सकता है। लेकिन एक मौजूं सवाल, जिस पर अदालत की आधिकारिक राय की जरूरत है, यह है कि जब भी कोई विधेयक राज्यपाल के सामने उसकी सहमति के लिए पेश की जाए तो क्या उसे इसकी वैधता या इसे पारित करने की विधायिका की क्षमता के बारे में निर्णय करना चाहिए। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में टिप्पणी की थी कि संवैधानिक पदाधिकारियों के बीच संवाद को निचले स्तर की तरफ नहीं बढ़ना चाहिए। राजनीतिक और व्यक्तिगत मतभेदों की वजह से संवैधानिक कार्यों को बंधक नहीं बनाया जाना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.