राज्यों के गृह मंत्रियों के एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा की गई हालिया टिप्पणियों में शायद अनायास ही इस बात का स्पष्टीकरण था कि शिक्षाविद, छात्र और वकील आतंकवाद के आरोप में जेलों में क्यों बंद हैं। उन्होंने नक्सलवाद के सभी रूपों को नेस्तनाबूद करने का आह्वान किया, चाहे वह बंदूक धारण करने वाला हो या फिर “अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने” और “युवाओं को गुमराह करने” के लिए कलम का इस्तेमाल करने वाला। इस टिप्पणी के अलावा उनका जोर इस बात पर भी था कि कैसे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम ने आतंकवाद के खिलाफ मुहिम को मजबूती दी है। दरअसल, उन्होंने एक विचलित करने वाला संदेश यह दिया है कि सरकार के साथ नजरिए में फर्क की स्थिति में पुलिस सशस्त्र उग्रवादियों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ एक जैसा ही सलूक करेगी। जिस तरह से यूएपीए को बार-बार और यहां तक कि आतंकवाद से कोई संबंध नहीं होने वाले मामलों में गलत तरीके से लागू किया गया है, उसे देखते हुए श्री मोदी के इस विचार से यह सवाल खड़ा होता है कि क्या उनके इस वक्तव्य का मकसद किसी खास चरमपंथी गतिविधि में नहीं भी शामिल होने वाले कई लोगों की निरंतर कैद का औचित्य ठहराना तो नहीं है। हिंसा भड़काना और खासकर सशस्त्र विद्रोह के लिए समर्थन जुटाना वाकई एक गंभीर अपराध है, लेकिन जब तक दिए गए समर्थन की प्रकृति और आतंक की वास्तविक गतिविधि या ऐसे किसी वारदात को अंजाम देने की साजिश के बीच कोई संबंध साबित नहीं होता हो, तब तक दो अलग – अलग बातों को एक जैसा देखना मुश्किल है।
दिल्ली दंगों के मामले में कार्यकर्ता उमर खालिद और एल्गार परिषद मामले में कबीर कला मंच की ज्योति जगताप को जमानत देने से इनकार करने वाले हालिया न्यायिक आदेश इस बात के सटीक उदाहरण हैं कि कैसे पुलिस यूएपीए लगाकर विरोध या प्रदर्शन में उनकी भागीदारी की प्रकृति और हिंसा की एक वास्तविक गतिविधि के बीच के फर्क को मिटाती है और इस प्रकार एक सांप्रदायिक या माओवादी साजिश में उनकी संलिप्तता दिखाने के लिए ठोस सबूत की जरूरत को खत्म कर देती है। भले ही यह नजीर यूएपीए के संभावित दुरुपयोग और कानून एवं इसकी न्यायिक व्याख्या, दोनों, में आजादी को लेकर पाए जाने वाले रोड़े को उजागर करती हो,
लेकिन इसका एक अलग किस्म का खामियाजा भी है: राजनीतिक बहस- मुबाहिसों को एक खास किस्म का मोड़ देकर राज्य के उन तौर- तरीकों, कार्रवाइयों और प्रक्रियाओं, जो बड़े पैमाने पर आक्रोश पैदा करती हैं, पर सवालिया निशान लगाने वाले लोगों को अपराधी करार दिया जाना। इसी पृष्ठभूमि में ‘अर्बन नक्सल’ जैसी राजनीतिक शब्दावलियों के इस्तेमाल को देखा जाना चाहिए। इस शब्द का इस्तेमाल हाल ही में श्री मोदी ने भी किया है। किसी भी आतंकवादी या माओवादी साजिश से जोड़े जाने की बात तो दूर, इस शब्द का इस्तेमाल खालिस तौर पर वैकल्पिक नजरिए वाले लोगों को कलंकित करने के लिए किया जाता है। सरकार द्वारा खुद को अधिक कड़े कानूनों से लैस करना हिंसक उग्रवाद से उत्पन्न खतरे के जवाब का सिर्फ एक हिस्सा भर है। हिंसक उग्रवाद के समर्थक ढांचे को खत्म करने के नाम पर साजिशें रचने से कहीं ज्यादा जरूरी इसके अंतर्निहित कारणों का इलाज ढूंढ़ना है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.