गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले चरण में गुरुवार को सौराष्ट्र, कच्छ और दक्षिण गुजरात के 19 जिलों की 89 सीटों पर 60 फीसदी से अधिक मतदान दर्ज किया गया। पहले चरण में कुल 788 उम्मीदवार मैदान में हैं। दूसरे चरण में, बाकी बची 93 सीटों पर 5 दिसंबर को मतदान होगा। आम आदमी पार्टी (आप) की दावेदारी ने राज्य में नए समीकरण बना दिए हैं, जहां पारंपरिक रूप से बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुकाबला होता आया है। ऐसा लग रहा है कि सूरत शहर और सौराष्ट्र के कुछ हिस्सों में ‘आप’ एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी है। वराछा रोड, कतारगाम और ओलपाद जैसी सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार इसुदान गढ़वी सौराष्ट्र के जाम खंभालिया से चुनाव लड़ रहे हैं और इसकी राज्य इकाई के अध्यक्ष गोपाल इटालिया सूरत के कतारगाम से चुनाव लड़ रहे हैं। वर्ष 2017 के चुनाव में, कांग्रेस ने अमरेली, मोरबी, सुरेंद्रनगर, गिर सोमनाथ और जूनागढ़ जिलों में सीटें जीतकर सौराष्ट्र क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया था, जबकि भाजपा ने सूरत शहर और दक्षिण गुजरात के अन्य जिलों पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी। शीर्ष नेताओं के हाथ में प्रचार की कमान और जमीन पर पार्टी की संरचना के अभाव की वजह से, चुनाव में आप के असर की सीमा को मापना मुश्किल है।
चुनाव से ठीक पहले मोरबी पुल हादसा हुआ था, जिसमें कम से कम 141 लोगों की मौत हो गई, लेकिन उस हादसे की वजह के रूप में भ्रष्टाचार या सरकार की नाकामी इस चुनाव में मुद्दा नहीं बने। कांग्रेस का प्रचार मद्धिम दिखाई पड़ा। पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करने से बचते हुए शासन, भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के रोजमर्रा के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। वर्ष 2017 में पार्टी के लिए चुनाव प्रचार का मोर्चा संभालने वाले राहुल गांधी ने इस मर्तबा राज्य का सिर्फ एक बार दौरा किया। बीजेपी के प्रचार की अगुवाई श्री मोदी ने की, जिन्होंने इस साल के मार्च से ही अपने गृह राज्य के दौरों की संख्या बढ़ा दी। चुनाव के ऐलान के बाद, उन्होंने सूरत, दक्षिण गुजरात के आदिवासी इलाकों और सौराष्ट्र में करीब एक दर्जन रैलियां और रोड शो किए। बीजेपी ने कांग्रेस द्वारा श्री मोदी के कथित अपमान, 2002 की सांप्रदायिक हिंसा, और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण जैसे भावनात्मक मुद्दों के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। जिस राज्य में वह बीते 27 साल से
सत्ता में है, वहां के शासन पर उसने चर्चा नहीं की। अपने शासन के रिकॉर्ड पर वोट मांगने से बचने का मतलब है कि बीजेपी अपनी नाकामी को स्वीकार कर रही है। लेकिन, हो सकता है कि बीजेपी को इसका बहुत ज्यादा खामियाजा न उठाना पड़े।
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