सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा न्यायिक नियुक्तियों के संभावित उम्मीदवारों से संबंधित खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के कुछ हिस्सों का खुलासा किए जाने में कुछ भी गलत या गंभीर चिंता की बात नहीं है, जैसा कि केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने दावा किया है। चाहे जो हो, सरकार द्वारा उठाए गए ऐतराजों की प्रकृति के बारे में कॉलेजियम के खुलासे ने सिर्फ चर्चा को पारदर्शी बनाने में मदद ही की है। इस धारणा से सहमत होना मुश्किल है कि कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित या विचार किए गए नामों पर इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) की रिपोर्ट हमेशा संवेदनशील प्रकृति की होती हैं। कॉलेजियम के खुलासे में रॉ का जिक्र नियुक्ति के लिए एक वकील की उपयुक्तता के मुद्दे को उठाने के क्रम में आया है क्योंकि उसका साथी एक विदेशी नागरिक है। आईबी की रिपोर्ट दो अन्य वकीलों की निष्पक्षता पर संदेह जताने के वास्ते उनके द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किए गए पोस्ट को रेखांकित करती जान पड़ती है। अपनी पहले की सिफारिशों को दोहराते हुए, कॉलेजियम को सरकार के ऐतराजों को बिंदुवार आधार पर दूर करना था। दावों के खंडन के लिहाज से प्रासंगिक विवरणों के खुलासे में कुछ भी अनुचित नहीं था। हाल के तीन उदाहरणों में, विभिन्न उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए जिन वकीलों के नामों की सिफारिश की गई है, उनके संबंध में खुफिया रिपोर्टों में कोई चौंकाने वाला खुलासा नहीं हुआ है। न ही ऐसी कोई संवेदनशील जानकारी सामने आई है, जिससे अधिकारियों की पहचान या उनके गुप्त कार्यों पर संकट खड़ा हो।
यह स्पष्ट नहीं है कि श्री रिजिजू ने किस आधार पर यह दावा किया है कि अगर खुफिया अधिकारियों की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाती है तो वे भविष्य में ऐसा करने में “दो बार सोचेंगे”, जबकि उनकी रिपोर्ट का सिर्फ एक सारांश ही सार्वजनिक पटल पर है। दरअसल, सवाल यह है कि सरकार को कॉलेजियम के साथ अपने संवाद में खुफिया रिपोर्टों का हवाला देना चाहिए या नहीं। सरकार द्वारा राजनीतिक विचारों या सोशल मीडिया पर साझा किए गए पोस्ट पर आधारित ऐतराजों को किसी एजेंसी का नाम लिए बगैर भी उठाया जा सकता था। यह नियुक्ति प्रक्रिया का हिस्सा है कि उम्मीदवारों के संभावित आपराधिक इतिहास या खराब आचरणों का पता लगाने के लिए खुफिया एजेंसियों द्वारा उनकी जांच की जाती है, और ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए विशेष रूप से किसी एजेंसी का हवाला देने की जरूरत नहीं है। यह भी बड़ी विडंबना है कि अपारदर्शिता के लिए नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना करने वाली सरकार कॉलेजियम के अत्यधिक खुलासे से चिंतित हो। इस तथ्य को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि सरकार भी सिफारिशों के कुछ मामले में अपनी चुप्पी एवं निष्क्रियता बरतकर और अन्य नामों को मंजूरी देने में तत्परता दिखाकर अपारदर्शिता में योगदान ही दे रही है। वह सरकारी नीतियों की आलोचना करने वाले कुछ पोस्ट के आधार पर कुछ उम्मीदवारों की उपयुक्तता का सवाल तो उठाती है, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी करती है कि सत्तारूढ़ पार्टी के साथ मजबूत राजनीतिक जुड़ाव वाले वकील भी बिना किसी बाधा के अदालत की पीठ में जगह पा जाते हैं।
This editorial has been translated from English, which can be read here.