सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ एक छात्रा के हिजाब पहनने की आजादी और स्कूलों को समानता एवं धर्मनिरपेक्षता के एक स्थान के तौर बरकरार रखने के राज्य के हित के बीच टकराव का हल निकालने में असमर्थ रही है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिजाब पहनने पर कर्नाटक सरकार के प्रतिबंध के पक्ष और विपक्ष में अदालत के समक्ष दिए गए विस्तृत तर्कों के बावजूद कोई स्पष्ट फैसला नहीं आया। यह विभाजित फैसला शायद धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दों पर वृहत्तर समाज में व्यापक विभाजन को दर्शाता है। एक तरफ स्कूल में यूनिफॉर्म (ड्रेस/वर्दी) के अलावा हिजाब पहनने के विचार को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने जहां यह माना है कि कक्षा में एक समुदाय को धार्मिक प्रतीकों को पहनने की अनुमति देना धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ होगा। वहीं दूसरी तरफ, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने यह कहा है कि एक संस्थान द्वारा अपने गेट पर किसी को हिजाब हटाने के लिए कहना उस व्यक्ति की निजता और गरिमा का हनन है। दरअसल मुद्दा यह है कि एक हिजाब जो कहीं से भी स्कूल की वर्दी के साथ छेड़छाड़ नहीं करता, वह शत्रुतापूर्ण भेदभाव का निशाना बने बिना किसी की पसंद का मसला क्यों नहीं हो सकता। और यह भी कि कहीं हिजाब का इस्तेमाल छात्राओं को उनके शिक्षा के अधिकार से वंचित करने के लिए तो नहीं किया जा रहा है। न्यायमूर्ति धूलिया इसी नजरिए का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि अनुशासन आजादी की कीमत पर नहीं होना चाहिए। उन्होंने हैरानी जतायी कि हिजाब पहनने वाली एक लड़की कैसे सार्वजनिक व्यवस्था के लिए समस्या हो सकती है। उन्होंने साफ कहा कि इस प्रथा का ‘तर्कसंगत समायोजन‘ एक परिपक्व समाज की निशानी होगा। उन्होंने उन छात्राओं की स्थिति के प्रति भी सहानुभूति दिखायी जिन्हें शिक्षा हासिल करने के लिए लड़कों के मुकाबले कहीं ज्यादा जद्दोजहद करनी पड़ती है।
दूसरी तरफ, न्यायमूर्ति गुप्ता ने समानता और अनुशासन को एक विविधता भरे देश में एक धर्मनिरपेक्ष संस्था के आवश्यक गुण के तौर पर सामने रखा है। उन्होंने कहा कि एक निर्धारित यूनिफॉर्म (वर्दी) के प्रावधान को लागू करते समय सरकार किसी भी संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती है। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर विद्यार्थियों को उनके प्रत्यक्ष धार्मिक प्रतीकों के साथ कक्षा में जाने की अनुमति दी जाती है, तो इससे बंधुत्व के संवैधानिक लक्ष्य को नुकसान होगा। इस विभाजित फैसले से यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि जिन मामलों में मतभेद तीखा होने और जिनका महत्वपूर्ण राजनीतिक असर होने की गुंजाइश हो, उन्हें सम संख्या वाले किसी डिवीजन बेंच के समक्ष रखा जाना चाहिए या नहीं। मौजूदा राजनीतिक माहौल में, कर्नाटक सरकार द्वारा “एकता, समानता और सार्वजनिक व्यवस्था के हित में” अनिवार्य एक निर्धारित वर्दी या किसी पोशाक को शैक्षणिक संस्थानों में धर्मनिरपेक्ष मानदंडों, समानता और अनुशासन की आड़ में लागू करने की कवायद को एक बहुसंख्यकवादी धमक के रूप में देखा गया। कोई भी फैसला जो शिक्षा के प्रति इस गैर-समावेशी नजरिए को वैध बनाता हो और कोई भी नीति जो मुस्लिम महिलाओं को अवसर से वंचित करती हो, देशहित में नहीं होगी। जब तक हिजाब या कोई भी धार्मिक अथवा अन्य पहनावा, स्कूल की वर्दी से जुदा न होता हो, उसका तर्कसंगत समायोजन ही वाजिब उपाय होना चाहिए।
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