भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की ‘भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर रिपोर्ट’ भारतीय वाणिज्यिक बैंकों की समेकित बैलेंस शीट के सात साल के अंतराल के बाद दहाई अंकों में विस्तार होने के साथ–साथ जोशीले तरीके से ऋण वृद्धि की तस्वीर पेश करती है। पहली नजर में यह खुशी का सबब है, लेकिन यह वृद्धि महामारी से प्रभावित वर्ष की उस पृष्ठभूमि में आई है जब ऋण की मांग सहित तमाम आर्थिक गतिविधियों में गिरावट आ गई थी। हालांकि, पहली छमाही में ऋण वृद्धि के एक दशक के उच्चतम स्तर पर पहुंचने के साथ चालू वित्त वर्ष में भी ऋण की रफ्तार बरकरार है। और 2 दिसंबर वाले पखवाड़े में, ऋण एक साल पहले के स्तर से 17.5 फीसदी बढ़ा। फिर भी, जमा वृद्धि निराशाजनक रूप से पिछड़ गई है और इसमें इस अवधि के दौरान सिर्फ 9.9 फीसदी की वृद्धि हुई। खुदरा मुद्रास्फीति और मूल्य स्थिरता संबंधी चिंताओं की वजह से वास्तविक हासिल के साथ-साथ बचत करने के प्रति बचतकर्ताओं का विश्वास खत्म होने से बैंकों ने ऋण संबंधी मांग को धन प्रदान करने में मदद करने हेतु जमा को बढ़ाने के प्रयासों को दोगुना करने की जरूरत महसूस की है। उधारदाता खुद को अपेक्षाकृत कम लागत वाली पूंजी को उधार देने से बचाना चाहेंगे, खासकर उस हालत में जब अर्थव्यवस्था वैश्विक मंदी की विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रही हो।
ऋण वृद्धि में तेजी के मद्देनजर, आरबीआई ने बैंकों से ऋण संबंधी चूकों के प्रति सतर्क रहने का भी आग्रह किया है। पिछले कुछ सालों में बैंकों की बैलेंस शीट बेहतर हुई है, जिसका श्रेय केंद्रीय बैंक की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता की समीक्षा, वाणिज्यिक बैंकों द्वारा तनावग्रस्त परिसंपत्तियों की पहचान और उन्हें बट्टे खाते में डालने की अनिवार्यता और साथ ही दिवाला एवं दिवालियापन संहिता के तहत ऋण वसूली को जाता है। बैंकों द्वारा सावधानी बरतना फायदेमंद है क्योंकि यह क्षेत्र खराब ऋण की स्थिति से अपनी नजरें नहीं चुरा सकता। खासतौर पर सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के बाद, जोकि बैंकों की ऋण देने की क्षमता पर खासा असर डालती हैं। “वर्ष 2017-18 के दौरान चरम पर रहने के बाद” से सितंबर 2022 में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों में पांच फीसदी की गिरावट देखी गई। उधार लेने वालों के बारे में बैंकों
की उचित सावधानी और ठोस ऋण मूल्यांकन से एनपीए को नियंत्रण में रखने में मदद मिलेगी, जबकि ऋण वृद्धि से पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) के लिए धन मुहैया कराने में मदद मिलती है। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने इस महीने बताया था कि निजी कैपेक्स इस साल की पहली छमाही में तीन लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था और अगर इसी रफ्तार को बनाए रखा जाता है, तो पूरे साल के आंकड़े पिछले कुछ सालों में सबसे ज्यादा होंगे। चिंताजनक रूप से, उन्होंने यह भी संकेत दिया था कि सरकारी कैपेक्स की रफ्तार को बनाए रखने की जरूरत नहीं है ताकि निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों को उधार लेने और निवेश करने का मौका मिल सके। हालांकि, राजकोषीय अनुशासन की बाधाओं को देखते हुए भी सरकार को कैपेक्स के मामले में अपनी रफ्तार बनाए रखनी चाहिए क्योंकि निजी कैपेक्स वृद्धि में निरंतरता आने में थोड़ा समय लग सकता है। चूंकि सात महीनों में से दो महीनों के दौरान कम रहने की वजह से औद्योगिक उत्पादन अभी भी ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजर रहा है, लिहाजा नीति निर्माताओं को ऋण प्रवाह और समग्र पूंजीगत व्यय का मददगार बने रहना सुनिश्चित करना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
COMMents
SHARE