तीखे विभाजन: “ऑकस” त्रिपक्षीय रक्षा समझौते के निहितार्थ

ऑकस संधि को संघर्ष बढ़ाने वाला कारक बनने के बजाय एक निवारक उपाय के रूप में काम करना चाहिए

March 16, 2023 12:59 pm | Updated 12:59 pm IST

संयुक्त राज्य अमेरिका (यू.एस.), यूनाइटेड किंगडम (यू.के.) और ऑस्ट्रेलिया के नेताओं की संयुक्त राज्य अमेरिका के लोमा स्थित नौसैनिक अड्डे में संयुक्त उपस्थिति और उनके द्वारा “ऑकस” त्रिपक्षीय रक्षा समझौते के बारे में दिए गए विवरण दृष्टिगत और निहितार्थों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं। यह घटनाक्रम इस बात का सूचक है कि वैश्विक स्तर पर वर्चस्व की प्रतिद्वंद्विता का एक नया अध्याय शुरू हो गया है। सितंबर 2021 में पहली बार घोषित और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र से संबंधित इस समझौते के तीन चरण होंगे। इस साल से अमल में आने वाले इस समझौते के तहत यू.एस. और यू.के. की नौसेनाएं ऑस्ट्रेलियाई कर्मियों को अपने साथ जोड़ेंगी और एक साथ प्रशिक्षण के लिए ऑस्ट्रेलिया के बंदरगाहों की अपनी यात्राओं में बढ़ोतरी करेंगी। दूसरे चरण में, यू.एस. और यू.के. की परमाणु पनडुब्बियां बारी-बारी से ऑस्ट्रेलिया की यात्रा करेंगी और यू.एस. ऑस्ट्रेलिया को पांच परमाणु-संचालित वर्जीनिया-श्रेणी की पनडुब्बियां बेचेगा। इसके बाद, एसएसएन- ऑकस नाम की एक नई पनडुब्बी का निर्माण किया जाएगा और तीनों नौसेनाओं द्वारा परस्पर संचालन के साथ इसका इस्तेमाल किया जाएगा। ब्रिटिश डिजाइन और अमेरिकी प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से तैयार होने वाले ऑस्ट्रेलिया के लिए इस सबसे बड़े सौदे पर 368 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च होने की उम्मीद है। यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि ऐसे गठबंधन का निशाना कौन है। अपने भाषण में, ब्रिटेन के नेता ऋषि सुनक ने कहा कि दुनिया के लिए सबसे ताजा चुनौतियां “यूक्रेन पर रूस के अवैध आक्रमण, चीन की बढ़ती मुखरता [और] ईरान एवं उत्तर कोरिया के अस्थिर व्यवहार” से पैदा हुईं हैं। इस नए गठजोड़ को ताइवान पर चीन द्वारा जताए जा रहे दावों के एक जवाब के रूप में देखा जा रहा है। इसके पीछे का विचार यह है कि जरूरत पड़ने पर ऑस्ट्रेलिया स्थित परमाणु-संचालित पनडुब्बियों सहित एक नौसैनिक बेड़ा दक्षिण चीन सागर में जल्दी से पहुंचने में सक्षम हो सके।

जाहिर है, इस समझौते का सबसे तीखा विरोध बीजिंग की तरफ से हुआ। उसने इसे एक “गलत और खतरनाक रास्ता” कहा है। वहीं रूस ने परमाणु प्रसार पर सवाल उठाए हैं, क्योंकि इस समझौते के जरिए ऑस्ट्रेलिया उन देशों के समूह में शामिल होगा जो परमाणु-संचालित पनडुब्बियों का इस्तेमाल करते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जहां जोर देकर कहा कि ये पनडुब्बियां परमाणु-संचालित होंगी लेकिन परमाणु-अस्त्रों से सुसज्जित नहीं, वहीं रूस और चीन की ओर से मास्को में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच होने वाली एक बैठक में अप्रसार संधि की व्यवस्थाओं के उल्लंघन पर चिंता व्यक्त किए जाने की उम्मीद है। न्यूजीलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया ने इस समझौते पर मौन बेचैनी का संकेत दिया है। भारत ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। ऐसा आंशिक रूप से इस तथ्य की वजह से हुआ है कि ऑकस देशों ने निस्संदेह नई दिल्ली को इससे अवगत करा रखा है। ‘क्वाड’ व्यवस्था में और ज्यादा रणनीतिक एवं रक्षा संभावनाओं का पता लगाने में हमेशा हिचकिचाहट महसूस करने वाली नई दिल्ली का जहां तक सवाल है, ऑकस समझौता इसे हिन्द – प्रशांत क्षेत्र के सैन्य परिदृश्य में राहत देता है। दक्षिणी दुनिया देशों के एक आवाज के रूप में भारत को यह सुनिश्चित करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए कि यह घोषणा अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधनों और रूस-चीन गठबंधन के बीच पहले से ही मौजूद तीखे विभाजन को और न बढ़ाए। यह वैश्विक स्तर पर तनातनी को तेज करने के बजाय एक निवारक उपाय साबित हो।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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