ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों पर न्यायपालिका के साथ संघर्ष को जारी रखने का दृढ़ संकल्प ले लिया है। तकरार अब दोहरा है। एक तरफ, केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की ओर से रोजाना लगाए वाले आरोप हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम की तीखी आलोचना करने और इसे निशाना बनाने का काम अपने हाथ में ले लिया है। वे लगातार हमलावर हैं और अब उन्होंने टिप्पणी की है कि अगर अदालत को ऐसा लगता है कि वे फाइल पर बैठे रहते हैं, तो अदालत उनके पास कोई फाइल न भेजे। वहीं दूसरी तरफ, सरकार के पास कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के संबंध में भेजी गई सिफारिशों में देर करने की रणनीति है। यह ऐसी नियुक्तियों में कॉलेजियम की प्रधानता की काट के रूप में अपनाई गई है। कॉलेजियम द्वारा बार-बार भेजे गए नामों को मंजूरी नहीं देने के मामले में सरकार के खिलाफ एक अवमानना याचिका पर सुवनाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने हैरत जताई कि क्या सरकार फाइलों पर इसलिए कर्रवाई नहीं कर रही है क्योंकि अदालत ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लागू करने की इजाजत नहीं दी! श्री रिजिजू के मुख्य आरोप से कई लोग सहमति जता सकते हैं कि कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शी नहीं है। हालांकि, उनकी तीखी टिप्पणियों से यह मंसूबा छिप नहीं पाया कि इन टिप्पणियों का मकसद अदालत की वैधता को कमजोर करना है। सरकार प्रचलित कानूनी नियमों का भी उल्लंघन कर रही है जिसमें कहा गया है कि कॉलेजियम द्वारा सरकार की आपत्तियों पर विचार करने के बाद बार-बार की गई सिफारिशों को मानना सरकार के लिए बाध्यकारी है।
न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संबंधों को पटरी पर लाना मुश्किल नहीं है, अगर दोनों पक्ष एक-दूसरे की ओर से जाहिर की गई चिंताओं को दूर करने के लिए तैयार हो। न्यायालय का यह कहना जायज है कि नियुक्तियों के लिए सिफारिश का पूरा मामला अनिश्चितता में फंस गया है और इसकी वजह से कई नामचीन वकील अपनी सहमति वापस ले रहे हैं या फिर खंडपीठ में शामिल होने के न्योते को अस्वीकार कर रहे हैं। न्यायापालिका की ओर से दो या तीन बार नाम भेजे जाने पर भी सरकार द्वारा अनदेखी करने के कई उदाहरण हैं। यही नहीं, अगर सरकार को इनमें से अगर किसी नाम पर कोई आपत्ति थी या कोई परहेज था, तो उसने इस बारे में भी कोई बात नहीं की। अगर ऐसे ही चलता रहा, तो हो सकता है कि कल को सरकार के खिलाफ सुनाए गए किसी बड़े फैसले को राजनीतिक नेतृत्व, सही फैसला मानने के बजाय न्यायपालिका की नाराजगी के रूप में पेश कर दे। मामले को और बिगड़ने से रोकने का एक तरीका यह है कि सरकार लंबित सिफारिशों को उचित तरीके से न्यायपालिका को भेज दे। दूसरा रास्ता यह है कि न्यायपालिका या तो कॉलेजियम के कामकाज के तरीके में सुधारों की प्रक्रिया शुरू करे या कम से कम ऐसा करने की सहमति जताए। खासकर, परामर्श के दायरे का विस्तार करे और जिन्हें चुना जाना है उनसे जुड़े क्षेत्र को थोड़ा व्यापक बनाए। साथ ही, वह जिन लोगों से सलाह लेती है उनमें विविधता लाए और सभी वर्गों के प्रतिनिधियों का समावेश करे। यह संभावना से परे नहीं है कि न्यायिक प्राधिकरण को कमजोर किए बिना, सरकार नियुक्तियां करने के लिए एक नया संवैधानिक तंत्र बना ले।
This editorial has been translated from English, which can be read here.