भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति को एकमात्र कार्यपालिका के अधिकार-क्षेत्र से हटा देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से चुनावों की निगरानी करने वाली इस प्रहरी संस्था (वाचडॉग) की आजादी को एक बड़ा बढ़ावा मिला है। अदालत ने यह फैसला सुनाया है कि प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) वाली एक तीन सदस्यीय समिति एक कानून पारित होने तक मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) का चयन करेगी। चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की निहित पूर्ण शक्तियों के साथ एक संवैधानिक निकाय के रूप में, ईसीआई इस गणतंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है जिसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कार्यात्मक स्वतंत्रता और संवैधानिक सुरक्षा की जरूरत होती है। यह परिपाटी रही है कि प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति सीईसी और ईसी की नियुक्ति करते हैं, लेकिन संविधान पीठ ने कहा है कि संविधान निर्माताओं का मूल उद्देश्य यह था कि उनकी नियुक्ति का तरीका एक संसदीय कानून द्वारा निर्धारित किया जाए। अनुच्छेद 324 कहता है कि राष्ट्रपति को मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संसद द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी कानून के तहत करनी चाहिए। हालांकि, एक के बाद एक तमाम सरकारें इस बारे में एक कानून बनाने में विफल रही हैं। मुख्य फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ ने विधायिका की “जड़ता” और एक कानून के अभाव में उभरे कथित खालीपन को अदालत के फैसले का आधार बनाया है।
कुछ लोग अदालत के इस मौलिक प्रस्ताव से असहमत होंगे कि चुनावों की प्रहरी संस्था को अत्यधिक स्वतंत्र होना चाहिए और उसे कार्यपालिका के अधीन कतई नहीं होना चाहिए; और नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी के लिए उस प्रहरी संस्था से किसी किस्म के आदान-प्रदान या वफादारी की अपेक्षा करने की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। सरकार का यह तर्क काफी कमजोर है कि मौजूदा प्रणाली अच्छी तरह से काम कर रही है और कहीं कोई खालीपन नहीं है। हकीकत में सर्वमान्य रूप से अब परिपाटी यह है कि प्रधानमंत्री वरिष्ठ नौकरशाहों की सूची में से एक नाम चुनते हैं और राष्ट्रपति को उसे नियुक्त करने की सलाह देते हैं। हालांकि, एक मौजूं सवाल यह है कि क्या चयन करने वाली समिति में सीजेआई की मौजूदगी ही एकमात्र वह तरीका है जिससे किसी संस्था की आजादी को संरक्षित किया जा सकता है। इस बात का कोई स्पष्ट सबूत नहीं है कि सीबीआई निदेशक, जिसे एक ऐसी समिति द्वारा नियुक्त किया जाता है जिसमें सीजेआई या उनके द्वारा नामित व्यक्ति शामिल होते हैं, की आजादी को संरक्षित किया या बढ़ाया गया है। इसके अलावा, सीजेआई की मौजूदगी सभी नियुक्तियों को पहले से ही वैधता प्रदान कर सकती है और इस प्रक्रिया में होने वाली किसी भी खामी या कमजोरी की निष्पक्ष न्यायिक जांच को प्रभावित कर सकती है। बहरहाल, सरकार के लिए इस संबंध में एक कानून बनाना सही रहेगा। लेकिन कोई ऐसा कानून नहीं जो अदालत के फैसले से बच निकलते हुए मौजूदा परिपाटी को ही बनाए रखने की जुगत करे, बल्कि एक ऐसा कानून जो ईसीआई की आजादी पर जोर देने की अदालत की भावना के अनुरूप हो।
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