संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आतंकवादियों की 1267 सूची में लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) के कमांडरों को सूचीबद्ध करने से जुड़े भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के दो प्रस्तावों पर चीन की तरफ से अड़ंगा लगाना अब उसका घिसा-पिटा रवैया बन गया है। जून से लेकर अब तक दिल्ली और वॉशिंगटन ने ऐसे पांच प्रस्ताव पेश किए और उन सबमें चीन ने अड़ंगा डाल दिया। इनमें जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर के भाई रऊफ असगर, लश्कर-ए-तैयबा के नेता अब्दुर रहमान मक्की (हाफ़िज़ सईद का बहनोई), 26/11 हमले में शामिल साजिद मीर और तल्हा सईद (हाफ़िज़ सईद का बेटा) और सबसे ताजा मामले में शाहिद महमूद को इस सूची में शामिल करने का अनुरोध शामिल है। महमूद पर आतंकी संगठनों के लिए लोगों को भर्ती करने और धन इकट्ठा करने का आरोप है। इनमें से हर शख्स, भारत के गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम की आतंकवादी सूची के साथ-साथ अमेरिका के फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (एफबीआई) की सूची में शामिल हैं। इन सब पर बीते दो दशकों में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित संगठन लश्कर और जैश द्वारा अंजाम दिए गए हमलों में शरीक होने के आरोपों के रिकॉर्ड हैं। साथ ही, ये लोग आईसी-814 अपहरण, संसद हमले और 26/11 के मुंबई हमले से लेकर पठानकोट, उड़ी और पुलवामा हमले तक भारत में हुए कई आतंकी गतिविधियों के जिम्मेदार हैं। इसके बावजूद, इन अनुरोधों पर चीन का रवैया अड़ियल रहा है। वैश्विक आतंकवाद-विरोधी मुहिम में उसकी क्या छवि बनेगी, इसकी परवाह किए बिना वह इन प्रस्तावों पर एक के बाद एक अड़ंगा लगाता रहा। उसने आलोचना में नई दिल्ली को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि पाकिस्तान के पक्ष में “राजनीतिक पूर्वाग्रह” की वजह से वह यह गतिरोध पैदा कर रहा है।
ऐसे हालात में, भारत के पास तीन स्पष्ट विकल्प हैं: जब तक चीन अपने रुख में बदलाव नहीं लाता, तब तक सरकार यह कोशिश बंद कर दे या फिर वह चीन द्वारा अड़ंगा लगाए जाने की परवाह किए बिना आतंकवाद से जुड़ा प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में पेश करता रहे। इससे यह साबित हो सकेगा कि चीन सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के नाते अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा है। हालांकि, इनमें से किसी रास्ते से आतंकवादी संगठनों के बाकी नेताओं को इस सूची में शामिल किए जाने का भारत का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा। तीसरा विकल्प, आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक सहयोग पर जोर देकर चीन के साथ राजनयिक बातचीत का दरवाजा खोलना है। यह बाकी द्विपक्षीय मुद्दों से अलग हो और इसमें बीजिंग को अपने अड़ियल रुख में बदलाव लाने के लिए राजी किया जाए। आखिरी विकल्प अगर नामुमकिन नहीं, तो मुश्किल जरूर है। हालांकि, यह याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान को 2012-2015 के दौरान और फिर 2018 से अबतक फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की “ग्रे लिस्ट” में शामिल कराने के लिए चीन को रजामंद किया गया था। साथ ही, उसके अड़ियल रुख को लचीला बनाकर 2019 में सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर को आतंकवादी सूची में शामिल करने के लिए भी तैयार किया गया, जबकि 2009 से वह लगातार इस प्रस्ताव को अवरुद्ध करता आया था। जैसा कि अनुमान है कि एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से पाकिस्तान शुक्रवार को बाहर आ जाएगा, ऐसे में भारत के लिए यह सही समय है कि वह चीन के साथ हर मुमकिन जरिए से विचार करे, ताकि देश को गहरा और स्थायी जख्म देने वाले सीमा पार आतंकवाद के सभी पीड़ितों को न्याय मिल सके।
This editorial has been translated from English, which can be read here.