मोटे अनाजों के परिवार के सदस्य और एक लोकप्रिय भोजन के तौर पर विभिन्न पोषक अनाज (मिलेट्स) इन दिनों एक अनोखे वक्त से रूबरू हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में पोषक अनाजों पर एक वैश्विक सम्मेलन का उद्घाटन किया और इन अनाजों की तारीफ करते हुए उन्हें भारत के सीमांत किसानों के लिए “समृद्धि का द्वार”, “पोषण की बुनियाद” और “जलवायु परिवर्तन” के खिलाफ लड़ाई में एक संभावित सहयोगी बताया। संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष घोषित किया है और फरवरी में अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उन्हें ‘श्री अन्न’ - मोटे तौर पर ‘सभी अनाजों में सबसे अच्छा’- के रूप में संबोधित किया। वित्त मंत्री ने भाषण में यह भी कहा कि हैदराबाद स्थित भारतीय कदन्न अनुसंधान संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मिलेट्स रिसर्च) को एक उत्कृष्टता केंद्र (सेंटर ऑफ एक्सीलेंस) के रूप में समर्थन दिया जाएगा।
ज्वार, बाजरा और रागी जैसे पोषक अनाज (मिलेट्स) भारतीय आहार परंपराओं में गहराई से जुड़े हुए हैं। यही वजह है कि यह देश लंबे समय तक दुनिया में बाजरा का सबसे बड़ा उत्पादक रहा है। इस अनाज परिवार के लोकप्रिय होने में इसलिए कोई अचरज नहीं है क्योंकि ये भरपूर ऊर्जा से सराबोर होते हैं; इन्हें शुष्क मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता है और ये चावल, गेहूं एवं मक्का जैसे अनाजों के मुकाबले कीटों से कम प्रभावित होते हैं। चावल एवं गेहूं के पक्ष में हुई 1960 के दशक की हरित क्रांति द्वारा इस ‘सुपर फूड’ को दरकिनार कर दिए जाने का पोषण से बहुत ही कम लेना-देना है। इसके पीछे चावल एवं गेहूं की उच्च उपज वाली किस्मों के विकास का योगदान ज्यादा है। ये किस्में प्रति एकड़ में दुगनी या तिगुनी उपज देती हैं। सरकार द्वारा गारंटीकृत खरीद की सुविधा की बदौलत चावल-गेहूं की जोड़ी ने भारत को सूखे और तुषारपात के दौर में भी खाद्यान्नों के मामले में सुरक्षित होने में समर्थ बनाया। हालांकि, इस खाद्य सुरक्षा की खासी कीमत चुकानी पड़ी। मसलन भूजल का अंधाधुंध दोहन, कीटनाशकों का मनमाना इस्तेमाल और अनाज उत्पादन एवं खरीद की खस्ताहाल प्रणाली, जोकि वर्षों से औसत किसान के लिए घाटे का सौदा बनी हुई है। वर्ष 1960 के दशक से औसत वैश्विक आय में बढ़ोतरी और
‘टिकाऊ कृषि’ की बढ़ती मांग के मद्देनजर, भारत पोषक अनाजों को एक वैश्विक रामबाण के रूप में भुनाने की जुगत में है। हालांकि, वैश्विक स्तर पर चावल-गेहूं-मक्का की तिकड़ी के साथ प्रतिस्पर्धा का सीधा मतलब यह है कि पोषक अनाजों का उत्पादन पारिश्रमिक के लिहाज से आज की तुलना में कई गुना अधिक फायदेमंद होना चाहिए। खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, कुल वैश्विक अनाज उत्पादन में चावल-गेहूं-मक्का की तिकड़ी की हिस्सेदारी 89 फीसदी है। ज्वार और बाजरा की संकर किस्में मौजूद हैं और इसके बावजूद इनकी पैदावार पिछले कई दशकों से हैरतअंगेज तरीके से नहीं बढ़ी है। इसका मतलब यह है कि अकेले तकनीकी बदलावों के बूते उपज में भारी उछाल की उम्मीद करना अव्यावहारिक होगा। आहार में बदलाव एक धीमी प्रक्रिया है और कुछ अनाजों को ‘श्रेष्ठ’ या कमतर के रूप में बढ़ावा देना आत्मघाती होगा क्योंकि यह उत्पादन के अर्थशास्त्र की उपेक्षा करता है और प्रचार के चक्र को बढ़ावा देता है - जैसा कि नकदी फसलों के मामले में देखा जाता है। इसका सीमांत किसानों पर बुरा असर पड़ सकता है। सभी अनाजों की खेती को बढ़ने देना और उपभोक्ताओं के व्यापक आधार को अपनी पसंद का अनाज हासिल करने में मदद करना कहीं ज्यादा टिकाऊ उपक्रम है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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