मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अधिवक्ता एल. विक्टोरिया गौरी की विवादास्पद पदोन्नति न्यायिक नियुक्ति की प्रणाली की समस्यात्मक प्रकृति का प्रतीक है। यह नियुक्ति अपने पसंदीदा लोगों के जरिए से अदालत की पीठ पर कब्जा जमाने की सरकार संचालित परियोजना का भी पूर्वाभास कराती है। सुश्री गौरी को पूरे जोशो-खारोस के साथ आयोजित एक शपथ ग्रहण समारोह में शपथ दिलाई गई। उनका अल्पसंख्यकों के प्रति स्पष्ट पूर्वाग्रह तब साफ हुआ जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनके नाम को अनुमोदित किए जाने के बाद अतीत में दिए गए उनके भाषण और साक्षात्कार सामने आए। इससे पहले, केंद्रीय कानून मंत्रालय ने असाधारण तेजी दिखाते हुए उम्मीदवारों के एक समूह से संबंधित सिफारिशों पर कार्रवाई की। मंत्रालय की ओर से ऐसी तेजी अन्य मामलों में नहीं दिखाई गई। यह साफ था कि सरकार उस अदालत के किसी भी संभावित अंतरिम आदेश से पहले कार्रवाई करना चाहती थी, जो सुश्री गौरी की नियुक्ति के खिलाफ वकीलों के एक समूह की याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत हो गई थी। इस प्रक्रिया में, सरकार ने आर. जॉन सत्यन को पहले नियुक्त करने की एक खास सिफारिश को नजरअंदाज कर दिया। मंत्रालय द्वारा इस वकील की उम्मीदवारी का पहले विरोध किया गया था। यह एक साफ संदेश है कि वर्तमान शासन कॉलेजियम द्वारा अनुमोदित लोगों में से नामों का चयन अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं के आधार पर करेगा। सरकार का बार-बार अपने तरीके से चलना यह दर्शाता है कि नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर टकराव एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां रिक्त पदों को भरने की स्थायी प्रक्रिया में किसी किस्म की सार्थक प्रगति के वास्ते नामों के मामले में कॉलेजियम पर कार्यपालिका के सामने झुकने का लगातार दबाव है।
सुश्री गौरी की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि अगर कॉलेजियम के साथ कारगर तरीके से परामर्श किया होता और उसके सामने प्रासंगिक जानकारी रखी गई होती, तो उनकी नियुक्ति संभव नहीं होती। इसके अलावा, अपने भाषणों में ईसाइयों और मुसलमानों की निंदा करके उन्होंने किसी भय या पक्षपात के बिना कार्य करने के लिए खुद को अयोग्य बना लिया है; और उनसे “धर्म के आधार पर...” बिना किसी भेदभाव के न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है। हालांकि, इस मामले की सुनवाई करने वाली पीठ ने इन याचिकाओं को यह कहते हुए सही ही खारिज कर दिया कि कॉलेजियम द्वारा इस पर निर्णय ले लिए जाने के बाद वह किसी भी नियुक्त व्यक्ति की उपयुक्तता पर फिर से विचार नहीं कर सकती है। न्यायिक पक्ष के लिहाज से अदालत संभवतः अपने शीर्ष तीन न्यायाधीशों की पसंद की समीक्षा नहीं कर सकती थी। दरअसल, कॉलेजियम के फैसले को समीक्षा के लिए पीठ के पास भेजने का कोई मतलब नहीं था। यह स्पष्ट है कि राज्य सरकार ने भी सुश्री गौरी के अतिवादी विचारों पर ऐतराज नहीं जाहिर किया था। भले ही राजनीतिक जुड़ाव किसी को न्यायिक पद के लिए अयोग्य नहीं बनाता है, लेकिन खुली कट्टरता को अयोग्यता का आधार होना चाहिए। यह नियुक्ति कॉलेजियम प्रक्रिया की विफलता का भी एक संकेत है कि एक विवादास्पद प्रस्ताव इसकी छानबीन से बचकर निकल गया। नियुक्ति प्रणाली में सुधार से कहीं ज्यादा की जरूरत है। शायद, एक ऐसी प्रक्रिया की जो उम्मीदवारों की साख के एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन को उनकी उपयुक्तता की सार्वजनिक जांच सुनिश्चित करने वाली एक स्वतंत्र प्रणाली के साथ जोड़े। फिलहाल जो मौजूदा प्रणाली है, वह एक अपारदर्शी और बंद-दरवाजे के भीतर आम सहमति बनाने वाली है, जो नुकसानदायक समझौतों की गुंजाइश बना सकती है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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